ओ मेरे मन!
सागर से मन!
हिरना मत बन.
नेह नदी ढूँढे
दो बूँदें ही भारी
रेतीले रिश्तों की
छवियाँ रतनारी
उकसाए प्यास
रचे, पाँव-पाँव
कोरी भटकन.
मरूथल में तूने जो
दूब- बीज बोए
बादल से, खोने का
रोना मत रोए
हर युग में
श्रम से आबाद हुए
ऊसर, निर्जन.
-
शशिकांत गीते
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